Saturday, March 13, 2010

गठित होगा मानवाधिकार आयोग

आदिवासी और ग्रामीण लोग अपेक्षाकृत कुछ अधिक सीधे-सरल होते हैं। बहुत जल्द ही किसी के समझाने पर समझ जाते हैं। इसका लाभ कभी नक्सलियों को मिलता रहा है तो कई बार सरकारी मशीनरी इसका दुरूपयोग करती है। किसी भी सूरत में ग्रामीणों को उत्पीडऩ का शिकार होना पड़ता है। ऐसी कई घटनाएं हो चुकी है। अब जाकर प्रदेश में मानवाधिकार आयोग गठन का मार्ग प्रशस्त हो पाया है।
झारखण्ड में जल्द ही यह सुनिश्चत करने के लिए मानवाधिकार आयोग का गठन किया जाएगा कि नक्सल-विरोधी अभियानों के नाम पर ग्रामीणों का उत्पीडऩ न हो। राज्य सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया, कि राज्य में मानवाधिकार आयोग का गठन जरूरी है क्योंकि नक्सल-विरोधी अभियानों में मानवाधिकारों के उल्लंघन के कई मामले आ चुके हैं। मानवाधिकार आयोग अधिनियम 1993 के तहत हर राज्य को आयोग का गठन करना है। झारखण्ड के गठन के नौ वर्ष बाद भी यहां मानवाधिकार आयोग का गठन नहीं हो सका है। राज्य कैबिनेट ने आयोग गठित करने के सरकार के प्रस्ताव को हरी झंडी दे दी। राज्य सरकार जल्द ही इस आयोग की कार्यप्रणाली और इसके होने वाले अध्यक्ष के बारे में फैसला करेगी।
दरअसल, जब से यूपीए सरकार ने माओवाद/नक्सलवाद के खिलाफ बड़ी सैन्य कार्रवाई का ऐलान किया है, अंग्रेजी समाचार चैनलों पर रोज़ शाम को होनेवाली चर्चाओं में भी नक्सलवाद/माओवाद एक प्रिय विषय बन गया है। इसमे कोई बुराई नहीं है लेकिन सरकार की घोषणा के बाद चैनलों की इस अतिसक्रियता से यह तो पता चलता ही है कि उनका अजेंडा कौन तय कर रहा है. यही नहीं, लगभग हर दूसरे-तीसरे दिन होनेवाली इन चर्चाओं में कुछ खास बातें गौर करनेवाली हैं. पहली बात तो ये कि बिना किसी अपवाद के सभी चैनलों पर एंकर सहित उन पत्रकारों/नेताओं/पुलिस अफसरों की भरमार होती है जो नक्सलवाद/माओवाद को न सिर्फ देश के लिए बड़ा खतरा मानते हैं बल्कि उससे निपटने के लिए सैन्य कार्रवाई को ही एकमात्र विकल्प मानते और उसका समर्थन करते हैं।
हालांकि ऐसी सभी चर्चाएं आमतौर पर एकतरफा होती हैं लेकिन उनपर यह आरोप न लग जाए, इसलिए एकाध मानवाधिकारवादी या बुद्धिजीवी को भी कोरम पूरा करने के वास्ते बुला लिया जाता है। फिर उसपर सवालों की बौछार शुरू कर दी जाती है लेकिन उसे जवाब देने का मौका नहीं दिया जाता है। चूंकि सवाल पूछने का हक एंकर के पास होता है, इसलिए चर्चा का एजेंडा भी वही तय करता है। वह कुछ सवालों को ही घुमा-फिराकर बार-बार पूछता है जैसे मानवाधिकारवादी माओवादी हिंसा की निंदा क्यों नहीं करते या क्या पुलिस का मानवाधिकार नहीं है या माओवादी न संविधान मानते हैं न सरकार और न ही हथियार डालने के लिए तैयार हैं तो उनसे बातचीत कैसे हो सकती है या क्या माओवादियों के लिए बातचीत अपनी ताक़त बढाने का सिर्फ एक बहाना नहीं है?
कहा तो यहां तक जा रहा है कि केंद्र जल्द ही नक्सलियों के खिलाफ बड़ा अभियान चलाने वाली है। इस अभियान की कामयाबी आदिवासियों की भागीदारी पर निर्भर है। अगर आदिवासी सरकार का साथ देंगे तो अभियान कामयाब होगा वरना नक्सलियों को नेस्तनाबूद करने का मंसूबा धरा का धरा रह जाएगा। साफ है केंद्र सरकार नक्सलियों के खिलाफ अभियान में आदिवासियों का इस्तेमाल करेगी आदिवासियों से नक्सलियों की गतिविधियों के बारे में जानकारी ली जाएगी। यही नहीं अगर नक्सलियों के संहार में कोई निर्दोष मारा जाता है और मानवाधिकार संगठन खड़े हो जाते हैं तो केंद्र द्वारा आदिवासियों के मुकदमे माफ करने का उस वक्त ढाल का काम करेगा। सवाल सरकार की मंशा को लेकर इसलिए भी हैं क्योंकि उसका ये फैसला जनकल्याणकारी सरकार से ज्यादा एक सांमतवादी शासक का है। जो अपने फैसले अपने फायदे नुकसान के हिसाब से करता है. ये फैसला इसलिए नहीं किया गया कि केंद्र को आदिवासियों की चिंता है। अगर होती तो ये फैसला काफी पहले ले लिया जाना चाहिए था।

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नीलम